Wednesday, December 10, 2014

नदियां भी परोपकार के लिए ही बहती हैं !


Thursday, September 4, 2014

So it is better to look good Jai Bharat Mata


So it is better to look good Jai Bharat Mata


So it is better to look good Jai Bharat Mata







So it is better to look good Jai Bharat Mata



So it is better to look good Jai Bharat Mata



So it is better to look good Jai Bharat Mata


So it is better to look good Jai Bharat Mata


So it is better to look good Jai Bharat Mata


So it is better to look good Jai Bharat Mata


Wednesday, August 20, 2014

काम की 10 बातें, जो रखें जीवन सुरक्षित, जानिए

राहुकाल : जब कोई कार्य पूर्ण मेहनत किए जाने के बाद भी असफल हो जाए या उस कार्य के विपरीत परिणाम जाए, तो समझ लीजिए आपका कार्य शुभ मुहूर्त में नहीं हुआ बल्कि राहुकाल में हुआ है। राहुकाल में शुभ कार्य करना वर्जित है।

क्या होता राहुकाल? : राहुकाल कभी सुबह, कभी दोपहर तो कभी शाम के समय आता है, लेकिन सूर्यास्त से पूर्व ही पड़ता है। राहुकाल की अवधि दिन (सूर्योदय से सूर्यास्त तक के समय) के 8वें भाग के बराबर होती है यानी राहुकाल का समय डेढ़ घंटा होता है। राहुकाल को छायाग्रह का काल कहते हैं। उक्त डेढ़ घंटा कोई कार्य न करें या किसी यात्रा को टाल दें।

कब होता है राहुकाल-
* रविवार को शाम 4.30 से 6.00 बजे तक राहुकाल होता है।
* सोमवार को दिन का दूसरा भाग यानी सुबह 7.30 से 9 बजे तक राहुकाल होता है।
* मंगलवार को दोपहर 3.00 से 4.30 बजे तक राहुकाल होता है।
* बुधवार को दोपहर 12.00 से 1.30 बजे तक राहुकाल माना गया है।
* गुरुवार को दोपहर 1.30 से 3.00 बजे तक का समय यानी दिन का छठा भाग राहुकाल होता है।
* शुक्रवार को दिन का चौथा भाग राहुकाल होता है यानी सुबह 10.30 बजे से 12 बजे तक का समय राहुकाल है।
* शनिवार को सुबह 9 बजे से 10.30 बजे तक के समय को राहुकाल माना गया है।

Wednesday, August 6, 2014

भगवान -*भग* शब्द का अर्थ करते हुए कहा गया हैं कि सम्पूर्ण ऐश्वर्य,

भगवान -*भग* शब्द का अर्थ करते हुए कहा गया हैं कि सम्पूर्ण ऐश्वर्य, सम्पूर्ण धर्म, सम्पूर्ण यश, सम्पूर्ण श्री, सम्पूर्ण ज्ञान तथा सम्पूर्ण वैराग्य के एकीभाव को *भग* कहते हैं ! ये छः पूर्णरूप से जिसमें नित्य निवास करें, वे भगवान हैं ! यह परमात्मतत्व नित्य, शाश्वत सगुण स्वरूप का वाचक हैं !

परमात्मा - यहां आत्मा शब्द का अर्थ जीव हैं !

परमात्मा - यहां आत्मा शब्द का अर्थ जीव हैं ! उस आत्मा (जीव) से जो श्रेष्ठ  हैं, वह परमात्मा हैं ! गीता में *अक्षरादपि चोत्तमः* कहकर पुरुषोत्तम परमात्मरूप का वर्णन हैं ! सृष्टि का जो मूल कारण हैं; जिसके संसर्ग के बिना प्रकृति में सृजन-क्रिया सम्भव नहीं, उस सविशेष सर्वव्यापक चित्त -तत्त्व को *परमात्मा* कहते हैं !

Monday, August 4, 2014

भजन मन को पवित्र करता है और मानव को परमार्थ की और विवेक-शील बनाता है ।

श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे, नाथ नारायण बासुदेव.. 
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अत: भजन को तन, मन और वचन से जप लो । 
अत: भजन को तन, मन और वचन से जप लो । 
अत: भजन को तन, मन और वचन से जप लो । 
सुप्रभातम..

Prabhu Kripa - मूल आधार श्रद्धा ...

मूल आधार श्रद्धा - जिन श्रद्धाओं को लेकर हम प्रार्थना करते हैं, वे जीवन को व्यापक बनाती हैं ! एक डूबता प्राणी जो भी चीज हाथ लगे, उसे पकड़ लेता हैं ! वह सोचता ही नहीं कि यह चीज कितनी मजबूत हैं ! में जब घौर विपदा में डूब रहा था, उस विपदा से मैनें कहा कि * मन भगवती को सन्देश दे दो-सुरेश मर रहा हैं और आत्मा अमर हैं ! *फिर बहते बहते दूसरे किनारे चला गया, जहां पर शक्ति थी ! मैनें प्रभु कृपा से उस शक्ति को हाथ से पकड़ां और सहज भाव से पांव रुक गया ! सार यह हैं कि डूबता हुआ व्यक्ति सोचता नहीं हैं कि उसे जो आधार मिल रहा हैं, वह कितना मजबूत हैं ! वह बिलकुल श्रद्धा से उसे पकड़ लेता हैं ! अगर वह श्रद्धा गलत साबित हुई तो वह डूबता हैं ! सही साबित हुई तो बच जाता हैं ! इस तरह डूबते हुए प्राणी का तैरने का जो प्रयत्न हैं, उसमें प्रार्थना आती हैं ! किसी को आधार की जरूरत मालूम नहीं होती ! लेकिन मैनें प्रभु कृपा को अपना मुख्य आधार माना हैं !

भजन मन को पवित्र करता है और मानव को  परमार्थ की  और विवेक-शील  बनाता है । 
अत: भजन को  तन, मन और वचन से जप लो । 

गणेश-गण (भूतगण, जीब-गण) के स्वामी अर्थात समस्त प्राणियों तथा पदार्थो के परमाधिपति !

उमा - उ शिवं माति-मिमित्ते* जो भगवान शंकर में अभिन्न रूप से (अर्धनारीश्वर रूप में भी) स्थित होकर उन्हें माप रही हैं; जो शिव में व्याप्त हैं; वे पराशक्ति उमा हैं ! 

दुर्गा- दुःखेन गम्यते -जिनकी प्राप्ति बड़े कष्ट से होती हैं ! * दुर्गति नश्यति इति दुर्गा* जो भक्त की दुर्गति का निवारण करने वाली हैं, वे पराशक्ति *दुर्गा* कहि जाती हैं !

महादेव - सबसे श्रेष्ठ देवता ! जो समस्त भावों को छोड़कर अपने ही ज्ञान एवं ऐश्वर्य से महिमान्वित हैं ! * देव प्रकाशक* अतः *महादेव*-परं प्रकाशक !

रूद्र-रुलाने वाले ! जो प्रलय-काल में प्रजा का संहार करके सबको रुलाते हैं, वे *रूद्र* ! अथवा *रुद ददाति* वाक् शक्ति के प्रदाता शिवपुराण के अनुसार *रूद्र* का अर्थ हैं -दुःखो तथा दुःखो के कारण दूर कर देने वाले ! रुद्रदुःखम दुःख-हेतुं वा तद द्रावयति यः प्रभु ! रूद्र इस्युच्यते तस्माच्छिवः परमकारणम् !!

शिव - निस्त्रैगुण्य - त्रिगुण-रहित शुद्ध सच्चिदानंद तत्व *शिव* कहलाता हैं ! अशुभ-निबारक, कल्याणस्वरूप होने से भी वे *शिव* कहे जाते हैं !

शंकर -*श* का अर्थ हैं- कल्याण ! जीव के परम कल्याणकर्ता होने से भगवान शिव को *शंकर* खा जाता हैं !

शम्भु-*शं* का अर्थ हैं मंगल ! वह जिसके द्वारा प्राप्त होता हैं, वे प्रभु *शम्भु* कहें जाते हैं !

लक्ष्मी - जो महाशक्ति सबकी लक्ष्यरूपा हैं, सभी जिनकी कृपा चाहते हैं, वे लक्ष्यभूता पराशक्ति *लक्ष्मी* कहलाती हैं !

श्री - शोभा,संपत्ति, ऐश्र्वर्य स्वरूपा होने से पराशक्ति कही जाती हैं !

He prayeth well who loveth well, Both man and bird and beast.He prayeth best who loveth best, All things both great and small;For the dear God who loveth us, He made and loveth all.O Lord of courage grave,O Master of this night of spring ! Make firm in me a heart too brave, To ask Thee anything.Who rises from prayer a better man, his prayer is answered. !

Tuesday, July 29, 2014

ज्वेलरी मेकिंग का प्रशिक्षण देने वाले -प्रमुख संस्थान-रत्न परीक्षण प्रयोगशाला: राजस्थान चेंबर भवन, द्वितीय तल, मिर्जा इस्माइल रोड, जयपुर-302003, वेबसाइट: www.gjepcindia.com


फैक्ट फाइल
प्रमुख संस्थान


Promotion of the Rosary माला का प्रचार

Promotion of the Rosary माला का प्रचार
सिक्खों की माला में दानों की जगहपर मुलायम रुईकी गांठे मात्र होती हैं ! पर यह टिकाऊ नहीं होती ! इसलिए वे कभी विशेष उत्सवोंपर लोहे की दानों की माला का व्यवहार भी करते देखे जाते हैं ! जैनियों के यहां गणितियाके अतिरिक्त कांचनीया माला का उपयोग भी किया होता हैं !
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हिन्दुओं के यहां वैजयन्ती की माला प्रसिद्धि हैं ! भगवान विष्णु प्रायः इसे ही धारण करते हैं --*वैजयंती च मालाम*(श्रीमद भागवत १०!२१!५),…उर वैजयन्तीमाल ! या बानिक मो मन बसो सदा बिहारीलाल !*इसके अतिरिक्त *वनमाला* और *जयमाला*का भी उल्लेख मिलता हैं -उर श्री वत्स रुचिर वनमाला ! * *पानि सरोज सोह जयमाला ! *कुछ लोगों के मत से ये तीनों ही एक हैं और कुछ के मत भिन्न ! जो हो, इस वैजयंतीमाला प्रायः पांच प्रकार की मणियों को गूँथा जाता हैं, जो पञ्च महाभूतों से उत्पन्न तथा पांचो तत्वों के प्रतीक माने जाते हैं ! 
यथा - भूतत्व से इंद्रनीलमणि अथवा नीलम, जलतत्व से मौक्तिक या मोती,अग्नितत्व का लाल या पद्मरागमणि, वायुतत्व का पुष्पराग और आकाश तत्व का वज्रमणि अथवा हीरा* इसी प्रकार एक पदिक हार भी होता हैं ! भगवान नाम का जप का सर्वश्रेष्ठ आधार *माला*मन जाता हैं ! सारे विश्व में इसका व्यापक प्रचार हैं ! इस माला की भारतीय (सनातनी) पद्धति पर *यज्ञानां जप यज्ञो अस्मि* शीर्षक लेख में कुछ प्रकाश डाला गया हैं !
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मुसलमानों के यहां *तसबीह* कहा जाता हैं ! तसबीह में ९९ गुरिया होते हैं ! उसमे अल्लाह का नाम जपते हैं ! 
Muslims are called here * are * rosary! There are 99 bead rosary! Let him reciting the name of Allah!
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जैनों की जपमाला में १११ दाने (मोती) होते हैं ! इनमें १०८ पर तो ये *णमो अर्हन्ताय* का जप करते हैं, शेष तीनपर *सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्रेभ्यों नमः* का जप करते हैं !
Jaina rosary of 111 grains (beads) are! Nmo Arhntay * 108 * chanting at them, they tend to Step * balance * chanting of Om Namah Samygdrshn knowledge Critrebyon do!
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(रा0 मा0 बाल0 ४७ / ७) ! इसी प्रकार, *सौपा-सीपी सूकरी गजमुक्ता मणिमाल ! इस पांचो को पोहिये, तब होबे जयमाल !* *वनमाल* की भी एक विधि हैं ! इसमें सीप, सर्पादि से उत्पन्न मुक्ता मणियों के पोहने की बात हैं !
(रोजेरीज मेन्शन्ड इन इंडियन लिटरेचर,ओरिएंटल कांग्रेश रिपोर्ट, १८८१,पृष्ठ ३)

The name of God, well done

The name of God, well done
जय आनंद,अमृत, अज, अव्यय ! आदि, अनादि, अतुल, अभिराम !
जय अशोक, अघहर, अखिलेश्वर ! योगी-मुनि-मानस-विश्राम !!
जय कलिमल-मर्दन, करुणामय ! कोसलपति, गन रूप निधान !
जय माधव, मधुसूदन, मोहन ! मुरलीधर,मृदु-हृदय, महान !
जय गोविन्द, गोपिकावल्लभ ! गोपति, गो-सेवक, गोपाल !!
जय गरुड़ध्वज, विष्णु चतर्भुज ! श्री लक्ष्मीपति, वक्ष-विशाल !
जय भय-दायक, भवसागर-तारक ! भक्त-भक्त श्रीमान !!
जय मुकुंद, मन्मथ-मन्मथ,मुर ! रिपु मंजुल-वपु, मंगलखान !
जय पुरषोत्तम,प्रकृति रमण प्रभु ! पावन-पावन परमानंद !!
जय शंकर, शिव, आशुतोष हर ! महादेव सब मंगल-भूप !
जय संहारक, रूद्र भयानक ! मुण्डमाल धरी तम-रूप !!
जय मृड, गंगाधर, गौरीपति ! गणपति-पिता,शर्व, रिपुकाम !
जय भुजंग-भूषण, शशिशेखर ! नीलकंठ,भव शोभाधाम !!
जय-काली,लक्ष्मी, सरस्वती ! राधा, सीता, श्री, ईशानि !
जय दुर्गा, तारा, परमेश्वरि ! विद्या, प्रज्ञा, परमेशानि !!
जय आदित्य, भुवनभास्कर ! घृणि,तमहर, पातकहर,द्युतिमान !
जय विघ्नेश, विघ्न-नाशक, गण-ईश ! सिद्धिदायक भगवान !!
जय प्रकाशमय, अग्नि,इंद्र,नर ! नारायण, पर, आत्माराम !
जय सर्वेश, सर्वगुण-निधि, विधि ! सर्वोतीत, सर्वमय श्याम !!
लीला-गुण-रस-तत्व-प्रकाशक ! प्रभु के मंगल-नाम अनंत !
जयति जयति जय नाम नित्य नव ! मधुर नित्य निर्गुण-गुणवंत !!

Monday, July 21, 2014

All of your grace, my work has been, Please Lord, do you live, that is my name

सब आपकी कृपा से, मेरा काम  हो रहा हैं !
करते हो प्रभु जी कृपा आप, मेरा नाम हो रहा हैं !!


Tuesday, April 22, 2014

हथेली की इस रेखा से जानें आपको पैसा और नाम मिलेगा या नहीं

हथेली की इस रेखा से जानें आपको पैसा और नाम मिलेगा या नहीं
श्रेणी: अध्यात्म विज्ञान -कैसी है आपकी भाग्य रेखा?

जब कोई अवसर हमारे हाथ से निकल जाता है तो हम कहते है कि "यह हमारे भाग्य में नहीं था" इसलिए यह नहीं हुआ और हम अपने भाग्य को कोसते हैं। भाग्य को दोष देने से पहले आप यह देखिये की आपकी हथेली में भाग्य रेखा क्या कह रही है।

नमः शिवाय 
शिव का वंदन किया करो ।
आप का दिन  शुभ मंगलमय हो ।


सुमति कुमति सब कें उर रहहीं।  नाथ पुरान निगम अस कहहीं। 
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना।।
भावार्थ : 
हे नाथ ! पुराण और वेद ऐसा कहते हैं कि सुबुद्धि (अच्छी बुद्धि) और कुबुद्धि (खोटी बुद्धि) सबके हृदय में रहती है, जहाँ सुबुद्धि है, वहाँ नाना प्रकार की संपदाएँ (सुख की स्थिति) रहती हैं और जहाँ कुबुद्धि है वहाँ परिणाम में विपत्ति (दुःख) रहती है.

बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥
भावार्थ : श्री रामजी क्रोध सहित बोले - बिना भय के प्रीति नहीं होती.

Monday, April 14, 2014

Hanuman Jayanti is on Tuesday, 15th April 2014.

When is Hanuman Jayanti in 2014?, Hannuman Jayanti 2014,  Hannuman Jayanthi 2014 Date

Hanuman jayanti is clebrated as a birthday of the god Hanuman allover world. He is a monkey diety and important charecter in the epic Ramayan. Hanuman Jayanti falls on Full moon day of the chaitra month. Usually it falls in March / April months. This year, Hanuman Jayanti is on Tuesday, 15th April 2014.

God Hanuman devotees observe fast during this day. People gather in a large number at temples and perform festival rituals. In Andhra pradesh Hanuman jayanti is observed on krishna paksha dashami during vaisakha month. In tamil nadu it falls on Margashira Amavasya.


धनुष

टिप्पणी – जैसा कि मन्यु शब्द की टिप्पणी में कहा जा चुका है, हमारे शरीर में अगणित धनुषों की कल्पना की जा सकती है । जहां भी तनाव उपस्थित होगा, वह देह के तन्तुओं से मिलकर उनको धनुष के दण्ड की भांति झुका देगा । यह आशा की जा सकती है कि वैदिक और पौराणिक साहित्य का धनुष किसी आदर्श स्थिति की करता होगा । इसका एक प्रमाण अथर्ववेद ७.५२.९ ७.५०.९ का निम्नलिखित मन्त्र है –

अक्षाः फलवतीं द्युवं दत्त गां क्षीरिणीमिव ।

सं मा कृतस्य धारया धनुः स्नाव्नेव नह्यत ।।

यह मन्त्र कितववध सूक्त का है । इस मन्त्र में कामना की गई है कि जो पांसे कृत अर्थात् जीत लिए गए हैं, उनकी धारा मुझे ऐसे बांध दे जैसे धनुष को स्नायु बांधता है । स्नायु से तात्पर्य धनुष दण्ड पर बंधने वाली डोरी से है जिसे ज्या कहा जाता है । मन्त्र में कहा जा रहा है कि ज्या कृत की धारा से बनी हो । अक्षों में द्यूत या चांस विद्यमान रहता है । जब धारा बन जाएगी तो आशा की जानी चाहिए कि द्यूत या चांस समाप्त हो जाएगा ।

अथर्ववेद ५.१८.८ का मन्त्र निम्नलिखित है –

जिह्वा ज्या भवति कुल्मलं वाङ् नाडीका दन्तास्तपसाभिदिग्धाः।

तेभिर्ब्रह्मा विध्यति देवपीयून् हृद्बलैर्धनुभिर्देवजूतैः ।।

इस मन्त्र में हृद्बलों को धनुष कहा जा रहा है । इन धनुषों में जिह्वा को ज्या कहा गया है और वाक् को धनुष दण्ड । दांतों को नालीक नामक इषु विशेष कहा गया है । जिह्वा का गुण रसों का आस्वादन करना होता है लेकिन इससे मिलने वाला सुख क्षणिक् होता है । यह द्यूत या चांस की स्थिति है । आवश्यकता इस बात की है कि जिह्वा सतत् रूप से रसों का आस्वादन करे । सामान्य रूप से रस की अनुभूति केवल जिह्वाग्र पर होती है । लेकिन अनशन के पश्चात् भोजन करने पर रस की अनुभूति जिह्वा के मूल में भी की जा सकती है ।

स्कन्द पुराण के ब्राह्म खण्ड का प्रथम भाग रामेश्वर सेतु माहात्म्य है । ऐसा प्रतीत होता है कि सेतु से तात्पर्य धनुष की ज्या से है । जैसा कि अथर्ववेद ७.५२.९ के मन्त्र में उल्लेख किया गया है, ज्या बनाने के लिए अक्षों के कृत होने तथा कृत से कृत की धारा बनना अभीष्ट है । सेतु निर्माण में प्रतीत होता है कि अक्षों को पाषाण कहा गया है। इन पाषाणों से सेतु बनाने का कार्य नल और नील द्वारा किया जाता है । पाषाणों के बीच में कौन सा आकर्षण हो कि यह परस्पर जुड जाएं । लोकभाषा में कहा जाता है कि उन पाषाणों पर राम और सीता लिख दिया गया जिससे वह जुड गए और सेतु बन गया । राम और सीता पुरुष व सात्विक प्रकृति के प्रतीक हो सकते हैं । स्कन्द पुराण ३.१.४९.३० के आधार पर यह कहा जा सकता है कि देश, काल, दिक् भेदों के रूप में जो भिन्नता विद्यमान है तथा अविद्या के रूप में जो भिन्नता विद्यमान है, उसके अपनयन पर सेतु बन सकता है ।

पौराणिक साहित्य यह इंगित करता है कि देह में मुख्य धनुष कौन से हो सकते हैं । एक धनुष के बारे में विष्णुधर्मोत्तर पुराण ३.३७.१० में कहा गया है कि चक्रवर्तियों की भौंहें चापाकृति होती हैं । भागवत पुराण ५.२.७ में इन भौंहों की कल्पना बिना ज्या वाले धनुष से की गई है । डा. फतहसिंह कहा करते थे कि भौंहें और कान ज्योति द्वारा परस्पर मिल जाते हैं । भौंहों के इस धनुष में तृतीय चक्षु का स्थान धनुर्मुष्टि का स्थान होना चाहिए और दो कान धनुष की दो कोटियां हो सकते हैं । ऋग्वेद ६.७५.३ में ज्या देवता की ऋचा निम्नलिखित है –

वक्ष्यन्ती वेदा गनीगन्ति कर्णं प्रियं सखायं परिषस्वजाना ।

योषेव शिङ्क्ते वितताधि धन्वञ्ज्या इयं समने पारयन्ती ।।

इस ऋचा में ज्या को वेदों की अभिव्यक्ति करने वाली, कर्ण को ? करने वाली, सखा का आलिंगन करने वाली योषा या पत्नी की भांति कहा जा रहा है । स्पष्ट है कि इस ऋचा में कर्णों से निर्मित किसी ज्या की कल्पना की जा रही है ।

हृदय से निर्मित धनुष का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है । इसके अतिरिक्त नाभि से निर्मित होने वाले धनुष के अस्तित्त्व की भी संभावना है । अथर्ववेद ६.१०१.२ में पसः या शिश्न को धनुष की ज्या कहा गया है जबकि अथर्ववेद ४.४.६ में पसः को स्वयं धनुष ही कहा गया है।

धनु शब्द की निरुक्ति के संदर्भ में यह सोचा जा सकता है कि जो तन्त्र, जो प्राण ऋण अवस्था से धन अवस्था की ओर ले जाता हो, वह धनु है । लेकिन इस निरुक्ति का कोई प्रमाण नहीं मिलता । दक्षतापूर्वक किया गया कार्य धनात्मकता उत्पन्न करता है, अतः यज्ञ को धनुष कहा गया है , आत्मा को शर और ब्रह्म को लक्ष्य । धनुर्वेद संहिता में प्रकट होने वाला एक श्लोक निम्नलिखित है –

पुष्पवद्धारयेद्बाणं सर्पवत्पीडयेद्धनुः। धनवच्चिन्तयेल्लक्ष्यं यदीच्छेत्सिद्धिमात्मनः।।

महाभारत शान्ति पर्व २८९.१८ में पिनाक धनुष की उत्पत्ति के संदर्भ में दी गई कथा रोचक है । उशना कवि कुबेर के अन्दर प्रवेश करके देवों की धनात्मकता का हरण कर रहे थे । देवों की प्रार्थना पर शिव आ गए । शिव को क्रोधित देख उशना छिपने के लिए स्थान ढूंढने लगे और स्वयं शिव के शूलाग्र में ही स्थित हो गए । शिव ने शूल को पाणि से झुकाकर उशना को अपने मुख से निगल लिया । कालान्तर में उशना को मूत्र मार्ग से बाहर निकाला । पाणि से झुका हुआ त्रिशूल ही पिनाक धनुष कहलाया । पाणि से आनत करने से उसका नाम पिनाक हुआ ।

महाभारत द्रोण पर्व २३.९१ में पाण्डवों के धनुषों के अलग – अलग देवताओं का नाम है जैसे विष्णु, शिव, अश्विनौ, वरुण, यम, अग्नि आदि । विष्णु के धनुष को शृङ्गों से निर्मित शार्ङ धनुष कहा जाता है ।

वराह पुराण २१.३५ में गायत्री के धनुष, ओंकार के ज्या तथा ७ स्वरों के शर बनने का उल्लेख है । यह कथन महाभारत सौप्तिक पर्व १८.७ में यज्ञ के धनुष और वषट्कार के ज्या होने के कथन से तुलनीय है । गायत्री का धनुष तभी बन सकता है जब सारी स्थूलता समाप्त हो गई हो । ७ स्वरों के शर बनने का कथन यह इंगित करता है कि यह कोई गात्र वीणा की स्थिति तो नहीं है । वीणा और धनुष भी तुलनीय हैं । वीणा में वीणा दण्ड होता है और तार कसे रहते हैं । जब वषट्कार को धनुष की ज्या कहा जाता है तो यह विचारणीय है कि वषट्कार क्या होता है । ब्राह्मण में कहा गया है - असौ वै वौ ऋतवो षट् । इसका अर्थ यह हो सकता है कि जब सूर्य का प्रवेश ६ ऋतुओं में, जीवन्त प्रकृति में हो जाता है तो वषट्कार बन जाता है । ऋतुएं, क्या होती हैं, इसका वर्णन वैदिक साहित्य में भिन्न – भिन्न रूप से मिलता है । ६ ऋतुओं में सूर्य की स्थिति होने पर क्या परिवर्तन हो सकते हैं, इसका अनुमान अथर्ववेद १५.२ सूक्त के आधार पर लगाया जा सकता है । इस सूक्त में वसन्त आदि ऋतुओं की कल्पना प्राची, दक्षिण, प्रतीची व उदीची दिशाओं के रूप में की गई है । प्राची दिशा से भूत – भविष्य का ज्ञान, दक्षिण दिशा से अमावास्या – पौर्णमासी का ज्ञान, प्रतीची से अह और रात्रि का ज्ञान तथा उदीची दिशा से श्रुत – विश्रुत का ज्ञान होता है । ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रकार काल के सभी अवयवों का ज्ञान होकर संवत्सर बन जाता है । स्कन्द पुराण ३.१ में सुदर्शन नामक जिस चक्र तीर्थ का वर्णन है, वह यह संवत्सर चक्र हो सकता है ।

देवीभागवत पुराण ७.३६.६, मुण्डकोपनिषद २.२.३ इत्यादि में प्रकट सार्वत्रिक श्लोक निम्नलिखित है –

प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते । अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ।।

इस मन्त्र में प्रणव को धनुष कहा जा रहा है । प्रणव की वास्तविक प्रकृति का ज्ञान न होने से प्रणव रूपी धनुष की प्रकृति का ज्ञान नहीं लगाया जा सकता । तैत्तिरीय संहिता ६.५.५.१ तथा शतपथ ब्राह्मण ४.३.३.६ में सोमयाग माध्यन्दिन सवन में मरुत्वतीय ग्रह के संदर्भ में तीन यजुओं का उल्लेख है । वृत्र का वध करने के लिए इन्द्र ने यह उचित समझा कि विशः या प्रजा रूपी मरुतों की सहायता ली जाए, उनको अपना सहायक बनाया जाए । मरुतों ने इस सहायता के बदले यज्ञ में अपना भाग मरुत्वतीय ग्रह के रूप में प्राप्त किया । तैत्तिरीय संहिता में कहा गया है कि प्रथम यजु धनुष है, द्वितीय यजु ज्या है और तृतीय यजु इषु है । इसी संदर्भ में आगे कहा गया है कि इन्द्र ने प्रथम यजु द्वारा प्राण का शोधन? किया, द्वितीय यजु द्वारा अपान का और तृतीय यजु द्वारा आत्मा का । शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि इन्द्र के पास आते समय मरुद्गण अपना ओज छोड आए थे । तृतीय यजु द्वारा मरुद्गण अपने ओज को भी इन्द्र के पास ले आए । प्राण को धनुष और अपान को ज्या कहने से संकेत मिलता है कि धनुष अमर्त्य स्तर का प्रतीक है जबकि ज्या मर्त्य स्तर का । इन दोनों के सम्मिलन से इषु का निर्माण होना है । इषु को किसी प्रकार ओज से सम्बद्ध किया गया है । जैसा कि ओज शब्द की टिप्पणी में कहा गया है, ओ कोई अनुनाद की, ऊर्जा की किसी साम्यावस्था की सूचक है और ज इस साम्यावस्था से ऊर्जा के ग्रहण करने को इंगित करता है । यह वैसे ही है जैसे आधुनिक विज्ञान में रेजोनेन्ट केविटी से ऊर्जा का ग्रहण किया जाता है । इस अवस्था को वेद में इषु कहा जा रहा है । उपरोक्त तीन यजुएं निम्नलिखित हैं –

१. इन्द्र मरुत्व इह पाहि सोमं यथा शार्यातेऽपिबः सुतस्य । तव प्रणीती तव शूर शर्मन्ना विवासन्ति कवयः सुयज्ञाः । उपयामगृहीतोऽसीन्द्राय त्वा मरुत्वतऽएष ते योनिरिन्द्राय त्वा मरुत्वते ।

२.मरुत्वन्तं वृषभं वावृधानमकवारिं दिव्यं शासमिन्द्रम् । विश्वासाहमवसे नूतनायोग्रं सहोदामिह तं हुवेम । उपयामगृहीतोऽसीन्द्राय त्वा मरुत्वते, एष ते योनिरिन्द्राय त्वा मरुत्वते(वाजसनेयि माध्यन्दिन संहिता ७.३६)।

संहिताभेद से इस यजु का एक रूपान्तर निम्नलिखित है –

मरुत्वाँ इन्द्र वृषभो रणाय पिबा सोममनुष्वधं मदाय । आ सिञ्चस्व जठरे मध्व ऊर्मिं त्वँ राजासि प्रदिवः सुतानाम् । उपयामगृहीतोऽसीन्द्राय त्वा मरुत्वते, एष ते योनिरिन्द्राय त्वा मरुत्वते(तैत्तिरीय संहिता १.४.१९)।

३.उपयामगृहीतोऽसि मरुतां त्वौजसे ।

उपरोक्त यजुओं का विश्लेषण भविष्य में अपेक्षित है । प्रथम यजु में मरुत्वान् इन्द्र सोम का पान इस प्रकार कर रहा है जैसे उसने शर्याति के यज्ञ में किया था । दूसरी यजु में वह सोमपान स्वधा के अनुदिश कर रहा है । यजु १ में कवि शब्द प्रकट हुआ है जबकि यजु २ में अकवारि, अर्थात् अकवि, जो अनुभूति को अव्यक्त करने में असमर्थ हो गया हो, इतना आह्लाद ।

सोमयाग में दक्षिणाग्नि या अन्वाहार्यपचन अग्नि का स्वरूप भी धनुषाकार होता है और इसका देवता नल नैषध है । यह अन्वेषणीय है कि धनुष या सेतु और अन्वाहार्यपचन अग्नि में कितनी समानताएं - असमानताएं हैं ।

पुराणों और ब्राह्मण ग्रन्थों में सार्वत्रिक रूप से एक आख्यान मिलता है कि विष्णु धनुष की ज्या पर अपना सिर रख कर सोए हुए थे । देवताओं की प्रेरणा से वम्रियों या दीमकों ने धनुष की ज्या को खा लिया जिससे धनुष दण्ड सीधा हो गया । धनुष की ऊपर की कोटि या नोक से विष्णु का सिर कट गया । फिर विष्णु की देह पर, जो यज्ञ का प्रतीक है, दूसरे सिर का सन्धान किया गया । ताण्ड्य ब्राह्मण ७.५.६ तथा तैत्तिरीय आरण्यक ५.१.२ में इस आख्यान का एक रूपान्तर प्राप्त होता है । देवों को यश की आवश्यकता थी और मख को वह यश पहले प्राप्त हो गया लेकिन उसने उस यश का देवों में वितरण नहीं किया । उस मख के सव्य या वाम भाग से धनु की उत्पत्ति हुई और दक्षिण से इषुओं की । वह धनुष का सहारा लेकर बैठ गया । दीमकों ने उस धनुष की ज्या को छिन्न कर दिया और इससे उस मख का सिर कट गया । वह सिर द्यावापृथिवी में फैल गया (प्रावर्तत)। यह फैलना प्रवर्ग्य कहलाया । यज्ञ के सिर को पुनः जोडने के लिए इस फैले हुए सिर के तेज को एकत्र किया जाता है । सोमयाग में सोमलता से सोम का निष्पादन करने से पूर्व प्रवर्ग्य और उपसद इष्टियों का सम्पादन किया जाता है । इसके पश्चात् ही सोमलता से सोम का निष्पादन किया जा सकता है । प्रवर्ग्य इष्टि को पूरे संवत्सर में संपन्न करना होता है और इसके प्रतीक रूप में संवत्सर के १२ मासों या २४ अर्धमासों के प्रतीक रूप १२ या २४ प्रवर्ग्य इष्टियां सम्पन्न करनी होती हैं । कर्मकाण्ड में प्रवर्ग्य इष्टि का स्वरूप यह है कि मृत्तिका के एक पात्र में, जिसे महावीर पात्र कहते हैं, घृत भरकर अग्नि में पकाया जाता है और फिर पकते हुए घृत में गौ पयः तथा अज पयः का क्रमशः प्रक्षेप किया जाता है । इससे बहुत ऊंची ज्वाला निकलती है । यह कर्म सायं - प्रातः १२ या २४ बार दोहराया जाता है । इस कर्मकाण्ड की अवधि में सामगान किया जाता है । सामों का संकेत किस ओर है, यह अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाया है । ऐसा प्रतीत होता है कि यह संकेत चन्द्र स्थिति का निर्माण करने की ओर है । किसी को पता नहीं है कि यह प्रवर्ग्य कर्म क्या है । प्रवर्ग्य शब्द को प्र – वृ के आधार पर समझा जा सकता है, अर्थात् प्रकृष्ट रूप से वरण करना, एकत्र करना । एकत्र किस वस्तु को करना है, यह इस पर निर्भर करता है कि किस प्रकार के सिर का निर्माण करना है । आन्तरिक चेतना जिस प्रकार की होगी, वैसे ही सिर का निर्माण देह पर होगा । वैदिक ऋषि किस प्रकार के सिर की अपेक्षा रखते हैं, इसका एक रूप जैमिनीय ब्राह्मण २.२६ से स्पष्ट होता है जिसका विवेचन विषयान्तर और विस्तारभय से यहां नहीं किया जा रहा है ।

तैत्तिरीय ब्राह्मण १.५.१ में धनुष को शिशिर ऋतु से सम्बद्ध किया गया लगता है । कहा गया है कि आरुणकेतुक अग्नि के धनुष की एक कोटि द्युलोक में है जबकि दूसरी कोटि पृथिवी में । इन्द्र ने वम्रिरूप होकर इस धनुष की ज्या को छिन्न कर दिया ।

ऋग्वेद १०.१८.९ की ऋचा में मृतक के हाथ से धनुष ले लेने का उल्लेख है –

धनुर्हस्तादाददानो मृतस्याऽस्मे क्षत्राय वर्चसे बलाय ।

अत्रैव त्वमिह वयं सुवीरा विश्वाः स्पृधो अभिमातीर्जयेम ।।

इस ऋचा का निहितार्थ क्या है, यह अन्वेषणीय है । तैत्तिरीय आरण्यक ६.१.३ में इस ऋचा का थोडा और विस्तार मिलता है कि मृत ब्राह्मण के हाथ से सुवर्ण लेना है, क्षत्रिय के हाथ से धनु और वैश्य के हाथ से मणि ।

शतपथ ब्राह्मण ५.३.५.२७ में धनुष को यजमान की बाहुओं से निर्मित कहा गया है और इन बाहुओं में से एक मित्र की बाहु है, एक वरुण की । यजमान को तीन इषु दिए जाते हैं जिनमें प्रथम इषु का नाम दृबा, द्वितीय का रुजा और तृतीय का क्षुमा है । प्रथम इषु से पृथिवी की, द्वितीय से अन्तरिक्ष की और तृतीय से द्युलोक की जय की जाती है । कात्यायन श्रौत सूत्र के कर्क भाष्य में बाहु – द्वय को धनुष की दो कोटियां कहा गया है ।

मैत्रायणी संहिता ६.२८ में संन्यासी के धनुष का निर्माण दो प्रकार से किया गया है । ज्या क्रोध, प्रलोभ दण्ड तथा इच्छामय इषुओं से निर्मित एक धनुष द्वारा भूतों का हनन करने का निर्देश है । प्रव्रज्या ज्या, धृति दण्ड तथा अनभिमानमय इषु से निर्मित धनुष से ब्रह्मद्वारपार के हनन का निर्देश है ।

मन्यु और धनुष -

अथर्ववेद ६.४२.१ के मन्यु सूक्त का प्रथम मन्त्र है –

अव ज्यामिव धन्वनो मन्युं तनोमि ते हृदः ।

यथा संमनसो भूत्वा सखायाविव सचावहै ।।

अर्थात् मैं तेरे हृदय से मन्यु का अवतनन इस प्रकार करता हूं जैसे धनुष पर से ज्या का अवरोपण किया जाता है । ऐसा करने से हम दोनों एक मन हो सकेंगे और सखाओं की भांति व्यवहार कर सकेंगे । इस मन्त्र से संकेत मिलता है कि हृदय में स्थित प्राण उन प्राणों में से हैं जिन पर मन का आरोपण करके, उन्हें मन द्वारा सममिति प्रदान करके मन्यु बनाया जा सकता है । लेकिन इस मन्यु को भी हटाना है । अथर्ववेद ५.१८.८ का मन्त्र है –

जिह्वा ज्या भवति कुल्मलं वाङ्नाडीका दन्तास्तपसाभिदिग्धाः।

तेभिर्ब्रह्मा विध्यति देवपीयून् हृद्बलैर्धनुभिर्देवजूतैः।।

इस मन्त्र के स्वामी गंगेश्वरानन्द कृत भाष्य में कहा गया है कि ब्रह्मा देवपीयुओं अर्थात् देवों को हानि पहुंचाने वालों का वेधन इस प्रकार करता है कि हृद्बल उसके धनुष बन जाते हैं, जिह्वा ज्या बन जाती है, वाक् कुल्मल अर्थात् धनुर्दण्ड बन जाती है, दन्त नालीक नामक आयुध बन जाते हैं । इस मन्त्र से संकेत मिलता है कि जब हृदय धनुष हो तो जिह्वा उसकी ज्या हो सकती है । पैप्पलाद संहिता १.९२.४ में जिह्वाग्र पर स्थित किसी मन्यु का उल्लेख है –

जिह्वाया अग्रे यो वो मन्युस् तं वो वि नयामसि ।।

जिह्वाग्र पर रसों का आस्वादन करने वाले तन्तु विद्यमान होते हैं । शिश्नाग्र और जिह्वाग्र का परस्पर सम्बन्ध कहा जाता है । और तो और, जिस टेस्टोस्टेरोन का ऊपर उल्लेख किया गया है, चिकित्सा साहित्य में कहा गया है कि उसके कारण अतिरिक्त जिह्वाग्र तन्तुओं का विकास भी किया जा सकता है । इसका यह तात्पर्य भी हो सकता है कि जब किसी रुग्णता के कारण मुख का स्वाद खराब हो जाता है, उसमें भी यही हारमोन उत्तरदायी हो सकता है ।

धनुष और उसकी ज्या के इन उल्लेखों को तब समझा जा सकता है जब यह ज्ञान हो कि अध्यात्म में धनुष और उसकी ज्या से क्या तात्पर्य हो सकता है । जब कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होकर ऊर्ध्वमुखी हो जाती है, उस समय की कुण्डलिनी की अवस्था को ज्या और शरीर को धनुष का नाम दिया जा सकता है । ज्या को गुण भी कहते हैं । अतः जब धनुष ज्यारहित होता है तो उसका अर्थ होगा कि वह सत्, रज व तम नामक तीन गुणों से रहित अवस्था में है । महाभारत सौप्तिक पर्व १८.७ में यज्ञों को धनुष और वषट्कार को उसकी ज्या कहा गया है । वषट्कार को इस प्रकार समझ सकते हैं कि सोमयाग में सोम की आहुति प्रायः जोर से वौ३षट् का उच्चारण करने के पश्चात् दी जाती है, वैसे ही जैसे साधारण रूप से आहुति देते समय स्वाहा शब्द का उच्चारण किया जाता है । कहा गया है कि वौषट् के उच्चारण से आकाश में जो मेघ वर्षा के लिए तैयार रहते हैं, वह बरस पडते हैं । मेघों के संप्लावन, विद्युत का चमकना आदि कार्य अन्य शब्दों द्वारा सम्पन्न किए जाते हैं । वौषट् का उच्चारण पूरा जोर लगाकर किया जाता है । इसे एक अभिचार समझा जाता है जो शत्रुओं का नाश करता है । वौषट् की दूसरी निरुक्ति इस प्रकार की गई है कि सूर्य वौ है और छह ऋतुएं षट् हैं । इस प्रकार वौषट् का उच्चारण करके पृथिवी पर ऋतुओं में सूर्य की प्रतिष्ठा की जाती है । वौषट् को मन्यु की स्थिति ही माना जा सकता है । अन्तर इतना है कि मन्यु की स्थिति प्राण में मन की प्रतिष्ठा होनी चाहिए, लेकिन वौषट् में सूर्य रूपी प्राण की प्रतिष्ठा ऋतुओं में की जा रही है । वौषट् से हम यह भी अनुमान लगा सकते हैं कि मनुष्य में टेस्टोस्टेरोन की पराकाष्ठा क्या हो सकती है । 

धनुष और उसकी ज्या का एक स्वरूप नाग रूप में भी है । लेकिन मन्यु के इस रूप में विष विद्यमान रहेगा जिससे मुक्ति अपेक्षित है ।

अथर्ववेद ५.१३.६ का मन्त्र है –

असितस्य तैमातस्य बभ्रोरपोदकस्य च ।

सत्रासाहस्याहं मन्योरव ज्यामिव धन्वना वि मुञ्चामि रथाँ इव ।।

इस मन्त्र में कहा जा रहा है कि मैं असित आदि विभिन्न सर्पों के मन्युओं से तुझे वैसे ही मुक्त करता हूं जैसे धनुष से ज्या का मोचन किया जाता है अथवा जैसे रथों से अश्वों को अलग किया जाता है ।

अथर्ववेद ८.३.१२ तथा १०.५.४८ के मन्त्रों का दूसरा पद निम्नलिखित है –

मन्योर्मनसः शरव्या जायते या तया विध्य हृदये यातुधानान् ।।

अर्थात् मन्यु युक्त मन से जो शरव्या या शर उत्पन्न होता है, उससे यातुधानों के हृदय का वेधन करो । इस प्रकार मन्यु के इन मन्त्रों में किसी न किसी प्रकार से हृदय का उल्लेख आ रहा है । यह भी स्पष्ट हो रहा है कि जहां मन्यु विद्यमान होगा, वहां वह धनुष की ज्या की भांति काम करेगा । यदि देह में स्थित मन्यु की बात करें तो वह प्रत्येक तन्तु में तनाव उत्पन्न करके उसको धनुष का स्वरूप देगा । अतः यह अपेक्षित है कि जहां जहां भी दूषित मन्यु के कारण धनुष बना हुआ है, उसे दूर करके सत्य मन्यु की, स्तोत्र की प्रतिष्ठा की जाए ।

संदर्भ-*पित्र्यमंशमुपवीतलक्षणं मातृकं च धनुरूर्जितं दधत् – रघुवंश ११.६४, कु. ६.६, शि.१.७, मनु. २.४४, २.६४, ४.३६

Thursday, March 20, 2014

ज्वाला कराल मृत्यु ग्रम- शेषासुर सूदनम् ! त्रिशूलं पातु-नो-भि-ते: भद्रकाली ! नमोस्तुते !!

शुक्रबार -
शुक्रवार को दिन का चौथा भाग राहुकाल होता है यानी सुबह 10.30 बजे से 12 बजे तक का समय राहुकाल है।
शुक्र के राहुकाल में 108 आवृति करने से सभी मनोकामना पूर्ण होती हें !
Prabhu Kripa Shrivastava
अखिल भारतीय कायस्थ महासभा - इकाई भोपाल मध्य भारत - M.P.BHOPAL


भगवान विष्णु के 1000 नामों की महिमा अवर्णनीय है।

इन नामों का संस्कृत रूप विष्णुसहस्रनाम के प्रतिरूप में विद्यमान है।
विष्णुसहस्रनाम का पाठ करने वाले व्यक्ति को यश, सुख, ऐश्वर्य, संपन्नता, सफलता, आरोग्य एवं सौभाग्य प्राप्त होता है तथा मनोकामनाओं की पूर्ति होती है।
भगवान विष्णु के 1000 नाम-
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नम:
ॐ विश्वं विष्णु: वषट्कारो भूत-भव्य-भवत-प्रभुः ।
भूत-कृत भूत-भृत भावो भूतात्मा भूतभावनः ।। 1 ।।
पूतात्मा परमात्मा च मुक्तानां परमं गतिः।
अव्ययः पुरुष साक्षी क्षेत्रज्ञो अक्षर एव च ।। 2 ।।
योगो योग-विदां नेता प्रधान-पुरुषेश्वरः ।
नारसिंह-वपुः श्रीमान केशवः पुरुषोत्तमः ।। 3 ।।
सर्वः शर्वः शिवः स्थाणु: भूतादि: निधि: अव्ययः ।
संभवो भावनो भर्ता प्रभवः प्रभु: ईश्वरः ।। 4 ।।
स्वयंभूः शम्भु: आदित्यः पुष्कराक्षो महास्वनः ।
अनादि-निधनो धाता विधाता धातुरुत्तमः ।। 5 ।।
अप्रमेयो हृषीकेशः पद्मनाभो-अमरप्रभुः ।
विश्वकर्मा मनुस्त्वष्टा स्थविष्ठः स्थविरो ध्रुवः ।। 6 ।।
अग्राह्यः शाश्वतः कृष्णो लोहिताक्षः प्रतर्दनः ।
प्रभूतः त्रिककुब-धाम पवित्रं मंगलं परं ।। 7।।
ईशानः प्राणदः प्राणो ज्येष्ठः श्रेष्ठः प्रजापतिः ।
हिरण्य-गर्भो भू-गर्भो माधवो मधुसूदनः ।। 8 ।।
ईश्वरो विक्रमी धन्वी मेधावी विक्रमः क्रमः ।
अनुत्तमो दुराधर्षः कृतज्ञः कृति: आत्मवान ।। 9 ।।
सुरेशः शरणं शर्म विश्व-रेताः प्रजा-भवः ।
अहः संवत्सरो व्यालः प्रत्ययः सर्वदर्शनः ।। 10 ।।
अजः सर्वेश्वरः सिद्धः सिद्धिः सर्वादि: अच्युतः ।
वृषाकपि: अमेयात्मा सर्व-योग-विनिःसृतः ।। 11 ।।
वसु:वसुमनाः सत्यः समात्मा संमितः समः ।
अमोघः पुण्डरीकाक्षो वृषकर्मा वृषाकृतिः ।। 12 ।।
रुद्रो बहु-शिरा बभ्रु: विश्वयोनिः शुचि-श्रवाः ।
अमृतः शाश्वतः स्थाणु: वरारोहो महातपाः ।। 13 ।।
सर्वगः सर्वविद्-भानु:विष्वक-सेनो जनार्दनः ।
वेदो वेदविद-अव्यंगो वेदांगो वेदवित् कविः ।। 14 ।।
लोकाध्यक्षः सुराध्यक्षो धर्माध्यक्षः कृता-कृतः ।
चतुरात्मा चतुर्व्यूह:-चतुर्दंष्ट्र:-चतुर्भुजः ।। 15 ।।
भ्राजिष्णु भोजनं भोक्ता सहिष्णु: जगदादिजः ।
अनघो विजयो जेता विश्वयोनिः पुनर्वसुः ।। 16 ।।
उपेंद्रो वामनः प्रांशु: अमोघः शुचि: ऊर्जितः ।
अतींद्रः संग्रहः सर्गो धृतात्मा नियमो यमः ।। 17 ।।
वेद्यो वैद्यः सदायोगी वीरहा माधवो मधुः।
अति-इंद्रियो महामायो महोत्साहो महाबलः ।। 18 ।।
महाबुद्धि: महा-वीर्यो महा-शक्ति: महा-द्युतिः।
अनिर्देश्य-वपुः श्रीमान अमेयात्मा महाद्रि-धृक ।। 19 ।।

FILE
महेष्वासो महीभर्ता श्रीनिवासः सतां गतिः ।
अनिरुद्धः सुरानंदो गोविंदो गोविदां-पतिः ।। 20 ।।
मरीचि:दमनो हंसः सुपर्णो भुजगोत्तमः ।
हिरण्यनाभः सुतपाः पद्मनाभः प्रजापतिः ।। 21 ।।
अमृत्युः सर्व-दृक् सिंहः सन-धाता संधिमान स्थिरः ।
अजो दुर्मर्षणः शास्ता विश्रुतात्मा सुरारिहा ।। 22 ।।
गुरुःगुरुतमो धामः सत्यः सत्य-पराक्रमः ।
निमिषो-अ-निमिषः स्रग्वी वाचस्पति: उदार-धीः ।। 23 ।।
अग्रणी: ग्रामणीः श्रीमान न्यायो नेता समीरणः ।
सहस्र-मूर्धा विश्वात्मा सहस्राक्षः सहस्रपात ।। 24 ।।
आवर्तनो निवृत्तात्मा संवृतः सं-प्रमर्दनः ।
अहः संवर्तको वह्निः अनिलो धरणीधरः ।। 25 ।।
सुप्रसादः प्रसन्नात्मा विश्वधृक्-विश्वभुक्-विभुः ।
सत्कर्ता सकृतः साधु: जह्नु:-नारायणो नरः ।। 26 ।।
असंख्येयो-अप्रमेयात्मा विशिष्टः शिष्ट-कृत्-शुचिः ।
सिद्धार्थः सिद्धसंकल्पः सिद्धिदः सिद्धिसाधनः ।। 27।।
वृषाही वृषभो विष्णु: वृषपर्वा वृषोदरः ।
वर्धनो वर्धमानश्च विविक्तः श्रुति-सागरः ।। 28 ।।
सुभुजो दुर्धरो वाग्मी महेंद्रो वसुदो वसुः ।
नैक-रूपो बृहद-रूपः शिपिविष्टः प्रकाशनः ।। 29 ।।
ओज: तेजो-द्युतिधरः प्रकाश-आत्मा प्रतापनः ।
ऋद्धः स्पष्टाक्षरो मंत्र:चंद्रांशु: भास्कर-द्युतिः ।। 30 ।।
अमृतांशूद्भवो भानुः शशबिंदुः सुरेश्वरः ।
औषधं जगतः सेतुः सत्य-धर्म-पराक्रमः ।। 31 ।।
भूत-भव्य-भवत्-नाथः पवनः पावनो-अनलः ।
कामहा कामकृत-कांतः कामः कामप्रदः प्रभुः ।। 32 ।।
युगादि-कृत युगावर्तो नैकमायो महाशनः ।
अदृश्यो व्यक्तरूपश्च सहस्रजित्-अनंतजित ।। 33 ।।
इष्टो विशिष्टः शिष्टेष्टः शिखंडी नहुषो वृषः ।
क्रोधहा क्रोधकृत कर्ता विश्वबाहु: महीधरः ।। 34 ।।
अच्युतः प्रथितः प्राणः प्राणदो वासवानुजः ।
अपाम निधिरधिष्टानम् अप्रमत्तः प्रतिष्ठितः ।। 35 ।।
स्कन्दः स्कन्द-धरो धुर्यो वरदो वायुवाहनः ।
वासुदेवो बृहद भानु: आदिदेवः पुरंदरः ।। 36 ।।
अशोक: तारण: तारः शूरः शौरि: जनेश्वर: ।
अनुकूलः शतावर्तः पद्मी पद्मनिभेक्षणः ।। 37 ।।
पद्मनाभो-अरविंदाक्षः पद्मगर्भः शरीरभृत ।
महर्धि-ऋद्धो वृद्धात्मा महाक्षो गरुड़ध्वजः ।। 38 ।।
अतुलः शरभो भीमः समयज्ञो हविर्हरिः ।
सर्वलक्षण लक्षण्यो लक्ष्मीवान समितिंजयः ।। 39 ।।
विक्षरो रोहितो मार्गो हेतु: दामोदरः सहः ।
महीधरो महाभागो वेगवान-अमिताशनः ।। 40 ।।
उद्भवः क्षोभणो देवः श्रीगर्भः परमेश्वरः ।
करणं कारणं कर्ता विकर्ता गहनो गुहः ।। 41 ।।
व्यवसायो व्यवस्थानः संस्थानः स्थानदो-ध्रुवः ।
परर्रद्वि परमस्पष्टः तुष्टः पुष्टः शुभेक्षणः ।। 42 ।।
रामो विरामो विरजो मार्गो नेयो नयो-अनयः ।
वीरः शक्तिमतां श्रेष्ठ: धर्मो धर्मविदुत्तमः ।। 43 ।।
वैकुंठः पुरुषः प्राणः प्राणदः प्रणवः पृथुः ।
हिरण्यगर्भः शत्रुघ्नो व्याप्तो वायुरधोक्षजः ।। 44।।
ऋतुः सुदर्शनः कालः परमेष्ठी परिग्रहः ।
उग्रः संवत्सरो दक्षो विश्रामो विश्व-दक्षिणः ।। 45 ।।
अनिर्विण्णः स्थविष्ठो-अभूर्धर्म-यूपो महा-मखः ।
नक्षत्रनेमि: नक्षत्री क्षमः क्षामः समीहनः ।। 47 ।।
यज्ञ इज्यो महेज्यश्च क्रतुः सत्रं सतां गतिः ।
सर्वदर्शी विमुक्तात्मा सर्वज्ञो ज्ञानमुत्तमं ।। 48 ।।
सुव्रतः सुमुखः सूक्ष्मः सुघोषः सुखदः सुहृत ।
मनोहरो जित-क्रोधो वीरबाहुर्विदारणः ।। 49 ।।
स्वापनः स्ववशो व्यापी नैकात्मा नैककर्मकृत ।
वत्सरो वत्सलो वत्सी रत्नगर्भो धनेश्वरः ।। 50 ।।
धर्मगुब धर्मकृद धर्मी सदसत्क्षरं-अक्षरं ।
अविज्ञाता सहस्त्रांशु: विधाता कृतलक्षणः ।। 51 ।।
गभस्तिनेमिः सत्त्वस्थः सिंहो भूतमहेश्वरः ।
आदिदेवो महादेवो देवेशो देवभृद गुरुः ।। 52 ।।
उत्तरो गोपतिर्गोप्ता ज्ञानगम्यः पुरातनः ।
शरीर भूतभृद्भोक्ता कपींद्रो भूरिदक्षिणः ।। 53 ।।
सोमपो-अमृतपः सोमः पुरुजित पुरुसत्तमः ।
विनयो जयः सत्यसंधो दाशार्हः सात्वतां पतिः ।। 54 ।।
जीवो विनयिता-साक्षी मुकुंदो-अमितविक्रमः ।
अम्भोनिधिरनंतात्मा महोदधिशयो-अंतकः ।। 55 ।।
अजो महार्हः स्वाभाव्यो जितामित्रः प्रमोदनः ।
आनंदो नंदनो नंदः सत्यधर्मा त्रिविक्रमः ।। 56 ।।
महर्षिः कपिलाचार्यः कृतज्ञो मेदिनीपतिः ।
त्रिपदस्त्रिदशाध्यक्षो महाश्रृंगः कृतांतकृत ।। 57 ।।
महावराहो गोविंदः सुषेणः कनकांगदी ।
गुह्यो गंभीरो गहनो गुप्तश्चक्र-गदाधरः ।। 58 ।।
वेधाः स्वांगोऽजितः कृष्णो दृढः संकर्षणो-अच्युतः ।
वरूणो वारुणो वृक्षः पुष्कराक्षो महामनाः ।। 59 ।।
भगवान भगहानंदी वनमाली हलायुधः ।
आदित्यो ज्योतिरादित्यः सहिष्णु:-गतिसत्तमः ।। 60 ।।
सुधन्वा खण्डपरशुर्दारुणो द्रविणप्रदः ।
दिवि:स्पृक् सर्वदृक व्यासो वाचस्पति:अयोनिजः ।। 61 ।।
त्रिसामा सामगः साम निर्वाणं भेषजं भिषक ।
संन्यासकृत्-छमः शांतो निष्ठा शांतिः परायणम ।। 62 ।।
शुभांगः शांतिदः स्रष्टा कुमुदः कुवलेशयः ।
गोहितो गोपतिर्गोप्ता वृषभाक्षो वृषप्रियः ।। 63 ।।
अनिवर्ती निवृत्तात्मा संक्षेप्ता क्षेमकृत्-शिवः ।
श्रीवत्सवक्षाः श्रीवासः श्रीपतिः श्रीमतां वरः ।। 64 ।।
श्रीदः श्रीशः श्रीनिवासः श्रीनिधिः श्रीविभावनः ।
श्रीधरः श्रीकरः श्रेयः श्रीमान्-लोकत्रयाश्रयः ।। 65 ।।
स्वक्षः स्वंगः शतानंदो नंदिर्ज्योतिर्गणेश्वर: ।
विजितात्मा विधेयात्मा सत्कीर्तिश्छिन्नसंशयः ।। 66 ।।
उदीर्णः सर्वत:चक्षुरनीशः शाश्वतस्थिरः ।
भूशयो भूषणो भूतिर्विशोकः शोकनाशनः ।। 67 ।।
अर्चिष्मानर्चितः कुंभो विशुद्धात्मा विशोधनः ।
अनिरुद्धोऽप्रतिरथः प्रद्युम्नोऽमितविक्रमः ।। 68 ।।
कालनेमिनिहा वीरः शौरिः शूरजनेश्वरः ।
त्रिलोकात्मा त्रिलोकेशः केशवः केशिहा हरिः ।। 69 ।।
कामदेवः कामपालः कामी कांतः कृतागमः ।
अनिर्देश्यवपुर्विष्णु: वीरोअनंतो धनंजयः ।। 70 ।।
ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृत् ब्रह्मा ब्रह्म ब्रह्मविवर्धनः ।
ब्रह्मविद ब्राह्मणो ब्रह्मी ब्रह्मज्ञो ब्राह्मणप्रियः ।। 71 ।।
महाक्रमो महाकर्मा महातेजा महोरगः ।
महाक्रतुर्महायज्वा महायज्ञो महाहविः ।। 72 ।।
स्तव्यः स्तवप्रियः स्तोत्रं स्तुतिः स्तोता रणप्रियः ।
पूर्णः पूरयिता पुण्यः पुण्यकीर्तिरनामयः ।। 73 ।।
मनोजवस्तीर्थकरो वसुरेता वसुप्रदः ।
वसुप्रदो वासुदेवो वसुर्वसुमना हविः ।। 74 ।।
सद्गतिः सकृतिः सत्ता सद्भूतिः सत्परायणः ।
शूरसेनो यदुश्रेष्ठः सन्निवासः सुयामुनः ।। 75 ।।
भूतावासो वासुदेवः सर्वासुनिलयो-अनलः ।
दर्पहा दर्पदो दृप्तो दुर्धरो-अथापराजितः ।। 76 ।।
विश्वमूर्तिमहार्मूर्ति:दीप्तमूर्ति: अमूर्तिमान ।
अनेकमूर्तिरव्यक्तः शतमूर्तिः शताननः ।। 77 ।।
एको नैकः सवः कः किं यत-तत-पद्मनुत्तमम ।
लोकबंधु: लोकनाथो माधवो भक्तवत्सलः ।। 78 ।।
सुवर्णोवर्णो हेमांगो वरांग: चंदनांगदी ।
वीरहा विषमः शून्यो घृताशीरऽचलश्चलः ।। 79 ।।
अमानी मानदो मान्यो लोकस्वामी त्रिलोकधृक ।
सुमेधा मेधजो धन्यः सत्यमेधा धराधरः ।। 80 ।।
तेजोवृषो द्युतिधरः सर्वशस्त्रभृतां वरः ।
प्रग्रहो निग्रहो व्यग्रो नैकश्रृंगो गदाग्रजः ।। 81 ।।
चतुर्मूर्ति: चतुर्बाहु:श्चतुर्व्यूह:चतुर्गतिः ।
चतुरात्मा चतुर्भाव:चतुर्वेदविदेकपात ।। 82 ।।
समावर्तो-अनिवृत्तात्मा दुर्जयो दुरतिक्रमः ।
दुर्लभो दुर्गमो दुर्गो दुरावासो दुरारिहा ।। 83 ।।
शुभांगो लोकसारंगः सुतंतुस्तंतुवर्धनः ।
इंद्रकर्मा महाकर्मा कृतकर्मा कृतागमः ।। 84 ।।
उद्भवः सुंदरः सुंदो रत्ननाभः सुलोचनः ।
अर्को वाजसनः श्रृंगी जयंतः सर्वविज-जयी ।। 85 ।।
सुवर्णबिंदुरक्षोभ्यः सर्ववागीश्वरेश्वरः ।
महाह्रदो महागर्तो महाभूतो महानिधः ।। 86 ।।
कुमुदः कुंदरः कुंदः पर्जन्यः पावनो-अनिलः ।
अमृतांशो-अमृतवपुः सर्वज्ञः सर्वतोमुखः ।। 87 ।।
सुलभः सुव्रतः सिद्धः शत्रुजिच्छत्रुतापनः ।
न्यग्रोधो औदुंबरो-अश्वत्थ:चाणूरांध्रनिषूदनः ।। 88 ।।
सहस्रार्चिः सप्तजिव्हः सप्तैधाः सप्तवाहनः ।
अमूर्तिरनघो-अचिंत्यो भयकृत्-भयनाशनः ।। 89 ।।
अणु:बृहत कृशः स्थूलो गुणभृन्निर्गुणो महान् ।
अधृतः स्वधृतः स्वास्यः प्राग्वंशो वंशवर्धनः ।। 90 ।।
भारभृत्-कथितो योगी योगीशः सर्वकामदः ।
आश्रमः श्रमणः क्षामः सुपर्णो वायुवाहनः ।। 91 ।।
धनुर्धरो धनुर्वेदो दंडो दमयिता दमः ।
अपराजितः सर्वसहो नियंता नियमो यमः ।। 92 ।।
सत्त्ववान सात्त्विकः सत्यः सत्यधर्मपरायणः ।
अभिप्रायः प्रियार्हो-अर्हः प्रियकृत-प्रीतिवर्धनः ।। 93 ।।
विहायसगतिर्ज्योतिः सुरुचिर्हुतभुग विभुः ।
रविर्विरोचनः सूर्यः सविता रविलोचनः ।। 94 ।।
अनंतो हुतभुग्भोक्ता सुखदो नैकजोऽग्रजः ।
अनिर्विण्णः सदामर्षी लोकधिष्ठानमद्भुतः ।। 95।।
सनात्-सनातनतमः कपिलः कपिरव्ययः ।
स्वस्तिदः स्वस्तिकृत स्वस्ति स्वस्तिभुक स्वस्तिदक्षिणः ।। 96 ।।
अरौद्रः कुंडली चक्री विक्रम्यूर्जितशासनः ।
शब्दातिगः शब्दसहः शिशिरः शर्वरीकरः ।। 97 ।।
अक्रूरः पेशलो दक्षो दक्षिणः क्षमिणां वरः ।
विद्वत्तमो वीतभयः पुण्यश्रवणकीर्तनः ।। 98 ।।
उत्तारणो दुष्कृतिहा पुण्यो दुःस्वप्ननाशनः ।
वीरहा रक्षणः संतो जीवनः पर्यवस्थितः ।। 99 ।।
अनंतरूपो-अनंतश्री: जितमन्यु: भयापहः ।
चतुरश्रो गंभीरात्मा विदिशो व्यादिशो दिशः ।। 100 ।।
अनादिर्भूर्भुवो लक्ष्मी: सुवीरो रुचिरांगदः ।
जननो जनजन्मादि: भीमो भीमपराक्रमः ।। 101 ।।
आधारनिलयो-धाता पुष्पहासः प्रजागरः ।
ऊर्ध्वगः सत्पथाचारः प्राणदः प्रणवः पणः ।। 102 ।।
प्रमाणं प्राणनिलयः प्राणभृत प्राणजीवनः ।
तत्त्वं तत्त्वविदेकात्मा जन्ममृत्यु जरातिगः ।। 103 ।।
भूर्भवः स्वस्तरुस्तारः सविता प्रपितामहः ।
यज्ञो यज्ञपतिर्यज्वा यज्ञांगो यज्ञवाहनः ।। 104 ।।
यज्ञभृत्-यज्ञकृत्-यज्ञी यज्ञभुक्-यज्ञसाधनः ।
यज्ञान्तकृत-यज्ञगुह्यमन्नमन्नाद एव च ।। 105 ।।
आत्मयोनिः स्वयंजातो वैखानः सामगायनः ।
देवकीनंदनः स्रष्टा क्षितीशः पापनाशनः ।। 106 ।।
शंखभृन्नंदकी चक्री शार्ङ्गधन्वा गदाधरः ।
रथांगपाणिरक्षोभ्यः सर्वप्रहरणायुधः ।। 107 ।।
सर्वप्रहरणायुध ॐ नमः ।
वनमालि गदी शार्ङ्गी शंखी चक्री च नंदकी ।
श्रीमान् नारायणो विष्णु: वासुदेवोअभिरक्षतु ।

Wednesday, February 5, 2014

क्या आप जानते है पुरीमें भगवान जगन्नाथ मंदिरके आठ आश्चर्यजनक तथ्य





1.मन्दिरके ऊपर झंडा सदैव हवाके विपरीत दिशामें लहराता है ।

2.पुरीमें किसी भी स्थानसे आप मन्दिरके ऊपर लगे सुदर्शन चक्रको देखेंगे तो वह आपको सामने ही लगा दिखेगा।

3.सामान्यत: दिनके समय हवा समुद्रसे भूमि की ओर आती है, और संध्याके मध्य इसके विपरीत, परंतु पूरी में इसका उल्टा होता है.

4.पक्षी मंदिरके ऊपर उडते हुए नहीं पायेगें।

5.मुख्य गुंबदकी छाया दिनके किसी भी समय अदृश्य रहता है |

6.मंदिर के अंदर पकानेके लिए भोजनकी मात्रा पूरे वर्ष के लिए रहती है। प्रसादकी एक भी मात्रा कभी भी यह व्यर्थ नहीं जाएगी, चाहे कुछ सहस्र लोगोंसे 20 लाख लोगोंको प्रसादका सेवन करा सकते हैं |

7. मंदिर में रसोई (प्रसाद) पकाने के लिए 7 बर्तन एक दूसरेपर रखा जाता है और लकड़ी पर पकाया जाता है, इस प्रक्रियामें शीर्ष बर्तनमें सामग्री प्रथम पकती है तत्पश्चात क्रमश: नीचे की ओर एकके पश्चात एक पकते जाती है।

8. मन्दिरके सिंहद्वारमें प्रथम कदम प्रवेश करनेसे लेकर मंदिरके गर्भगृह तक आप सागरद्वारा निर्मित किसी भी ध्वनि नहीं सुन सकते | आप (मंदिर के बाहर से) एक ही कदमको पार करें जब आप इसे सुन सकते हैं, इसे संध्याके समय स्पष्ट रूपसे अनुभव किया जा सकता है।
 — withPrasanta Datta and Gagan Sharma.