Tuesday, April 22, 2014

हथेली की इस रेखा से जानें आपको पैसा और नाम मिलेगा या नहीं

हथेली की इस रेखा से जानें आपको पैसा और नाम मिलेगा या नहीं
श्रेणी: अध्यात्म विज्ञान -कैसी है आपकी भाग्य रेखा?

जब कोई अवसर हमारे हाथ से निकल जाता है तो हम कहते है कि "यह हमारे भाग्य में नहीं था" इसलिए यह नहीं हुआ और हम अपने भाग्य को कोसते हैं। भाग्य को दोष देने से पहले आप यह देखिये की आपकी हथेली में भाग्य रेखा क्या कह रही है।

नमः शिवाय 
शिव का वंदन किया करो ।
आप का दिन  शुभ मंगलमय हो ।


सुमति कुमति सब कें उर रहहीं।  नाथ पुरान निगम अस कहहीं। 
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना।।
भावार्थ : 
हे नाथ ! पुराण और वेद ऐसा कहते हैं कि सुबुद्धि (अच्छी बुद्धि) और कुबुद्धि (खोटी बुद्धि) सबके हृदय में रहती है, जहाँ सुबुद्धि है, वहाँ नाना प्रकार की संपदाएँ (सुख की स्थिति) रहती हैं और जहाँ कुबुद्धि है वहाँ परिणाम में विपत्ति (दुःख) रहती है.

बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥
भावार्थ : श्री रामजी क्रोध सहित बोले - बिना भय के प्रीति नहीं होती.

Monday, April 14, 2014

Hanuman Jayanti is on Tuesday, 15th April 2014.

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Hanuman jayanti is clebrated as a birthday of the god Hanuman allover world. He is a monkey diety and important charecter in the epic Ramayan. Hanuman Jayanti falls on Full moon day of the chaitra month. Usually it falls in March / April months. This year, Hanuman Jayanti is on Tuesday, 15th April 2014.

God Hanuman devotees observe fast during this day. People gather in a large number at temples and perform festival rituals. In Andhra pradesh Hanuman jayanti is observed on krishna paksha dashami during vaisakha month. In tamil nadu it falls on Margashira Amavasya.


धनुष

टिप्पणी – जैसा कि मन्यु शब्द की टिप्पणी में कहा जा चुका है, हमारे शरीर में अगणित धनुषों की कल्पना की जा सकती है । जहां भी तनाव उपस्थित होगा, वह देह के तन्तुओं से मिलकर उनको धनुष के दण्ड की भांति झुका देगा । यह आशा की जा सकती है कि वैदिक और पौराणिक साहित्य का धनुष किसी आदर्श स्थिति की करता होगा । इसका एक प्रमाण अथर्ववेद ७.५२.९ ७.५०.९ का निम्नलिखित मन्त्र है –

अक्षाः फलवतीं द्युवं दत्त गां क्षीरिणीमिव ।

सं मा कृतस्य धारया धनुः स्नाव्नेव नह्यत ।।

यह मन्त्र कितववध सूक्त का है । इस मन्त्र में कामना की गई है कि जो पांसे कृत अर्थात् जीत लिए गए हैं, उनकी धारा मुझे ऐसे बांध दे जैसे धनुष को स्नायु बांधता है । स्नायु से तात्पर्य धनुष दण्ड पर बंधने वाली डोरी से है जिसे ज्या कहा जाता है । मन्त्र में कहा जा रहा है कि ज्या कृत की धारा से बनी हो । अक्षों में द्यूत या चांस विद्यमान रहता है । जब धारा बन जाएगी तो आशा की जानी चाहिए कि द्यूत या चांस समाप्त हो जाएगा ।

अथर्ववेद ५.१८.८ का मन्त्र निम्नलिखित है –

जिह्वा ज्या भवति कुल्मलं वाङ् नाडीका दन्तास्तपसाभिदिग्धाः।

तेभिर्ब्रह्मा विध्यति देवपीयून् हृद्बलैर्धनुभिर्देवजूतैः ।।

इस मन्त्र में हृद्बलों को धनुष कहा जा रहा है । इन धनुषों में जिह्वा को ज्या कहा गया है और वाक् को धनुष दण्ड । दांतों को नालीक नामक इषु विशेष कहा गया है । जिह्वा का गुण रसों का आस्वादन करना होता है लेकिन इससे मिलने वाला सुख क्षणिक् होता है । यह द्यूत या चांस की स्थिति है । आवश्यकता इस बात की है कि जिह्वा सतत् रूप से रसों का आस्वादन करे । सामान्य रूप से रस की अनुभूति केवल जिह्वाग्र पर होती है । लेकिन अनशन के पश्चात् भोजन करने पर रस की अनुभूति जिह्वा के मूल में भी की जा सकती है ।

स्कन्द पुराण के ब्राह्म खण्ड का प्रथम भाग रामेश्वर सेतु माहात्म्य है । ऐसा प्रतीत होता है कि सेतु से तात्पर्य धनुष की ज्या से है । जैसा कि अथर्ववेद ७.५२.९ के मन्त्र में उल्लेख किया गया है, ज्या बनाने के लिए अक्षों के कृत होने तथा कृत से कृत की धारा बनना अभीष्ट है । सेतु निर्माण में प्रतीत होता है कि अक्षों को पाषाण कहा गया है। इन पाषाणों से सेतु बनाने का कार्य नल और नील द्वारा किया जाता है । पाषाणों के बीच में कौन सा आकर्षण हो कि यह परस्पर जुड जाएं । लोकभाषा में कहा जाता है कि उन पाषाणों पर राम और सीता लिख दिया गया जिससे वह जुड गए और सेतु बन गया । राम और सीता पुरुष व सात्विक प्रकृति के प्रतीक हो सकते हैं । स्कन्द पुराण ३.१.४९.३० के आधार पर यह कहा जा सकता है कि देश, काल, दिक् भेदों के रूप में जो भिन्नता विद्यमान है तथा अविद्या के रूप में जो भिन्नता विद्यमान है, उसके अपनयन पर सेतु बन सकता है ।

पौराणिक साहित्य यह इंगित करता है कि देह में मुख्य धनुष कौन से हो सकते हैं । एक धनुष के बारे में विष्णुधर्मोत्तर पुराण ३.३७.१० में कहा गया है कि चक्रवर्तियों की भौंहें चापाकृति होती हैं । भागवत पुराण ५.२.७ में इन भौंहों की कल्पना बिना ज्या वाले धनुष से की गई है । डा. फतहसिंह कहा करते थे कि भौंहें और कान ज्योति द्वारा परस्पर मिल जाते हैं । भौंहों के इस धनुष में तृतीय चक्षु का स्थान धनुर्मुष्टि का स्थान होना चाहिए और दो कान धनुष की दो कोटियां हो सकते हैं । ऋग्वेद ६.७५.३ में ज्या देवता की ऋचा निम्नलिखित है –

वक्ष्यन्ती वेदा गनीगन्ति कर्णं प्रियं सखायं परिषस्वजाना ।

योषेव शिङ्क्ते वितताधि धन्वञ्ज्या इयं समने पारयन्ती ।।

इस ऋचा में ज्या को वेदों की अभिव्यक्ति करने वाली, कर्ण को ? करने वाली, सखा का आलिंगन करने वाली योषा या पत्नी की भांति कहा जा रहा है । स्पष्ट है कि इस ऋचा में कर्णों से निर्मित किसी ज्या की कल्पना की जा रही है ।

हृदय से निर्मित धनुष का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है । इसके अतिरिक्त नाभि से निर्मित होने वाले धनुष के अस्तित्त्व की भी संभावना है । अथर्ववेद ६.१०१.२ में पसः या शिश्न को धनुष की ज्या कहा गया है जबकि अथर्ववेद ४.४.६ में पसः को स्वयं धनुष ही कहा गया है।

धनु शब्द की निरुक्ति के संदर्भ में यह सोचा जा सकता है कि जो तन्त्र, जो प्राण ऋण अवस्था से धन अवस्था की ओर ले जाता हो, वह धनु है । लेकिन इस निरुक्ति का कोई प्रमाण नहीं मिलता । दक्षतापूर्वक किया गया कार्य धनात्मकता उत्पन्न करता है, अतः यज्ञ को धनुष कहा गया है , आत्मा को शर और ब्रह्म को लक्ष्य । धनुर्वेद संहिता में प्रकट होने वाला एक श्लोक निम्नलिखित है –

पुष्पवद्धारयेद्बाणं सर्पवत्पीडयेद्धनुः। धनवच्चिन्तयेल्लक्ष्यं यदीच्छेत्सिद्धिमात्मनः।।

महाभारत शान्ति पर्व २८९.१८ में पिनाक धनुष की उत्पत्ति के संदर्भ में दी गई कथा रोचक है । उशना कवि कुबेर के अन्दर प्रवेश करके देवों की धनात्मकता का हरण कर रहे थे । देवों की प्रार्थना पर शिव आ गए । शिव को क्रोधित देख उशना छिपने के लिए स्थान ढूंढने लगे और स्वयं शिव के शूलाग्र में ही स्थित हो गए । शिव ने शूल को पाणि से झुकाकर उशना को अपने मुख से निगल लिया । कालान्तर में उशना को मूत्र मार्ग से बाहर निकाला । पाणि से झुका हुआ त्रिशूल ही पिनाक धनुष कहलाया । पाणि से आनत करने से उसका नाम पिनाक हुआ ।

महाभारत द्रोण पर्व २३.९१ में पाण्डवों के धनुषों के अलग – अलग देवताओं का नाम है जैसे विष्णु, शिव, अश्विनौ, वरुण, यम, अग्नि आदि । विष्णु के धनुष को शृङ्गों से निर्मित शार्ङ धनुष कहा जाता है ।

वराह पुराण २१.३५ में गायत्री के धनुष, ओंकार के ज्या तथा ७ स्वरों के शर बनने का उल्लेख है । यह कथन महाभारत सौप्तिक पर्व १८.७ में यज्ञ के धनुष और वषट्कार के ज्या होने के कथन से तुलनीय है । गायत्री का धनुष तभी बन सकता है जब सारी स्थूलता समाप्त हो गई हो । ७ स्वरों के शर बनने का कथन यह इंगित करता है कि यह कोई गात्र वीणा की स्थिति तो नहीं है । वीणा और धनुष भी तुलनीय हैं । वीणा में वीणा दण्ड होता है और तार कसे रहते हैं । जब वषट्कार को धनुष की ज्या कहा जाता है तो यह विचारणीय है कि वषट्कार क्या होता है । ब्राह्मण में कहा गया है - असौ वै वौ ऋतवो षट् । इसका अर्थ यह हो सकता है कि जब सूर्य का प्रवेश ६ ऋतुओं में, जीवन्त प्रकृति में हो जाता है तो वषट्कार बन जाता है । ऋतुएं, क्या होती हैं, इसका वर्णन वैदिक साहित्य में भिन्न – भिन्न रूप से मिलता है । ६ ऋतुओं में सूर्य की स्थिति होने पर क्या परिवर्तन हो सकते हैं, इसका अनुमान अथर्ववेद १५.२ सूक्त के आधार पर लगाया जा सकता है । इस सूक्त में वसन्त आदि ऋतुओं की कल्पना प्राची, दक्षिण, प्रतीची व उदीची दिशाओं के रूप में की गई है । प्राची दिशा से भूत – भविष्य का ज्ञान, दक्षिण दिशा से अमावास्या – पौर्णमासी का ज्ञान, प्रतीची से अह और रात्रि का ज्ञान तथा उदीची दिशा से श्रुत – विश्रुत का ज्ञान होता है । ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रकार काल के सभी अवयवों का ज्ञान होकर संवत्सर बन जाता है । स्कन्द पुराण ३.१ में सुदर्शन नामक जिस चक्र तीर्थ का वर्णन है, वह यह संवत्सर चक्र हो सकता है ।

देवीभागवत पुराण ७.३६.६, मुण्डकोपनिषद २.२.३ इत्यादि में प्रकट सार्वत्रिक श्लोक निम्नलिखित है –

प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते । अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ।।

इस मन्त्र में प्रणव को धनुष कहा जा रहा है । प्रणव की वास्तविक प्रकृति का ज्ञान न होने से प्रणव रूपी धनुष की प्रकृति का ज्ञान नहीं लगाया जा सकता । तैत्तिरीय संहिता ६.५.५.१ तथा शतपथ ब्राह्मण ४.३.३.६ में सोमयाग माध्यन्दिन सवन में मरुत्वतीय ग्रह के संदर्भ में तीन यजुओं का उल्लेख है । वृत्र का वध करने के लिए इन्द्र ने यह उचित समझा कि विशः या प्रजा रूपी मरुतों की सहायता ली जाए, उनको अपना सहायक बनाया जाए । मरुतों ने इस सहायता के बदले यज्ञ में अपना भाग मरुत्वतीय ग्रह के रूप में प्राप्त किया । तैत्तिरीय संहिता में कहा गया है कि प्रथम यजु धनुष है, द्वितीय यजु ज्या है और तृतीय यजु इषु है । इसी संदर्भ में आगे कहा गया है कि इन्द्र ने प्रथम यजु द्वारा प्राण का शोधन? किया, द्वितीय यजु द्वारा अपान का और तृतीय यजु द्वारा आत्मा का । शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि इन्द्र के पास आते समय मरुद्गण अपना ओज छोड आए थे । तृतीय यजु द्वारा मरुद्गण अपने ओज को भी इन्द्र के पास ले आए । प्राण को धनुष और अपान को ज्या कहने से संकेत मिलता है कि धनुष अमर्त्य स्तर का प्रतीक है जबकि ज्या मर्त्य स्तर का । इन दोनों के सम्मिलन से इषु का निर्माण होना है । इषु को किसी प्रकार ओज से सम्बद्ध किया गया है । जैसा कि ओज शब्द की टिप्पणी में कहा गया है, ओ कोई अनुनाद की, ऊर्जा की किसी साम्यावस्था की सूचक है और ज इस साम्यावस्था से ऊर्जा के ग्रहण करने को इंगित करता है । यह वैसे ही है जैसे आधुनिक विज्ञान में रेजोनेन्ट केविटी से ऊर्जा का ग्रहण किया जाता है । इस अवस्था को वेद में इषु कहा जा रहा है । उपरोक्त तीन यजुएं निम्नलिखित हैं –

१. इन्द्र मरुत्व इह पाहि सोमं यथा शार्यातेऽपिबः सुतस्य । तव प्रणीती तव शूर शर्मन्ना विवासन्ति कवयः सुयज्ञाः । उपयामगृहीतोऽसीन्द्राय त्वा मरुत्वतऽएष ते योनिरिन्द्राय त्वा मरुत्वते ।

२.मरुत्वन्तं वृषभं वावृधानमकवारिं दिव्यं शासमिन्द्रम् । विश्वासाहमवसे नूतनायोग्रं सहोदामिह तं हुवेम । उपयामगृहीतोऽसीन्द्राय त्वा मरुत्वते, एष ते योनिरिन्द्राय त्वा मरुत्वते(वाजसनेयि माध्यन्दिन संहिता ७.३६)।

संहिताभेद से इस यजु का एक रूपान्तर निम्नलिखित है –

मरुत्वाँ इन्द्र वृषभो रणाय पिबा सोममनुष्वधं मदाय । आ सिञ्चस्व जठरे मध्व ऊर्मिं त्वँ राजासि प्रदिवः सुतानाम् । उपयामगृहीतोऽसीन्द्राय त्वा मरुत्वते, एष ते योनिरिन्द्राय त्वा मरुत्वते(तैत्तिरीय संहिता १.४.१९)।

३.उपयामगृहीतोऽसि मरुतां त्वौजसे ।

उपरोक्त यजुओं का विश्लेषण भविष्य में अपेक्षित है । प्रथम यजु में मरुत्वान् इन्द्र सोम का पान इस प्रकार कर रहा है जैसे उसने शर्याति के यज्ञ में किया था । दूसरी यजु में वह सोमपान स्वधा के अनुदिश कर रहा है । यजु १ में कवि शब्द प्रकट हुआ है जबकि यजु २ में अकवारि, अर्थात् अकवि, जो अनुभूति को अव्यक्त करने में असमर्थ हो गया हो, इतना आह्लाद ।

सोमयाग में दक्षिणाग्नि या अन्वाहार्यपचन अग्नि का स्वरूप भी धनुषाकार होता है और इसका देवता नल नैषध है । यह अन्वेषणीय है कि धनुष या सेतु और अन्वाहार्यपचन अग्नि में कितनी समानताएं - असमानताएं हैं ।

पुराणों और ब्राह्मण ग्रन्थों में सार्वत्रिक रूप से एक आख्यान मिलता है कि विष्णु धनुष की ज्या पर अपना सिर रख कर सोए हुए थे । देवताओं की प्रेरणा से वम्रियों या दीमकों ने धनुष की ज्या को खा लिया जिससे धनुष दण्ड सीधा हो गया । धनुष की ऊपर की कोटि या नोक से विष्णु का सिर कट गया । फिर विष्णु की देह पर, जो यज्ञ का प्रतीक है, दूसरे सिर का सन्धान किया गया । ताण्ड्य ब्राह्मण ७.५.६ तथा तैत्तिरीय आरण्यक ५.१.२ में इस आख्यान का एक रूपान्तर प्राप्त होता है । देवों को यश की आवश्यकता थी और मख को वह यश पहले प्राप्त हो गया लेकिन उसने उस यश का देवों में वितरण नहीं किया । उस मख के सव्य या वाम भाग से धनु की उत्पत्ति हुई और दक्षिण से इषुओं की । वह धनुष का सहारा लेकर बैठ गया । दीमकों ने उस धनुष की ज्या को छिन्न कर दिया और इससे उस मख का सिर कट गया । वह सिर द्यावापृथिवी में फैल गया (प्रावर्तत)। यह फैलना प्रवर्ग्य कहलाया । यज्ञ के सिर को पुनः जोडने के लिए इस फैले हुए सिर के तेज को एकत्र किया जाता है । सोमयाग में सोमलता से सोम का निष्पादन करने से पूर्व प्रवर्ग्य और उपसद इष्टियों का सम्पादन किया जाता है । इसके पश्चात् ही सोमलता से सोम का निष्पादन किया जा सकता है । प्रवर्ग्य इष्टि को पूरे संवत्सर में संपन्न करना होता है और इसके प्रतीक रूप में संवत्सर के १२ मासों या २४ अर्धमासों के प्रतीक रूप १२ या २४ प्रवर्ग्य इष्टियां सम्पन्न करनी होती हैं । कर्मकाण्ड में प्रवर्ग्य इष्टि का स्वरूप यह है कि मृत्तिका के एक पात्र में, जिसे महावीर पात्र कहते हैं, घृत भरकर अग्नि में पकाया जाता है और फिर पकते हुए घृत में गौ पयः तथा अज पयः का क्रमशः प्रक्षेप किया जाता है । इससे बहुत ऊंची ज्वाला निकलती है । यह कर्म सायं - प्रातः १२ या २४ बार दोहराया जाता है । इस कर्मकाण्ड की अवधि में सामगान किया जाता है । सामों का संकेत किस ओर है, यह अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाया है । ऐसा प्रतीत होता है कि यह संकेत चन्द्र स्थिति का निर्माण करने की ओर है । किसी को पता नहीं है कि यह प्रवर्ग्य कर्म क्या है । प्रवर्ग्य शब्द को प्र – वृ के आधार पर समझा जा सकता है, अर्थात् प्रकृष्ट रूप से वरण करना, एकत्र करना । एकत्र किस वस्तु को करना है, यह इस पर निर्भर करता है कि किस प्रकार के सिर का निर्माण करना है । आन्तरिक चेतना जिस प्रकार की होगी, वैसे ही सिर का निर्माण देह पर होगा । वैदिक ऋषि किस प्रकार के सिर की अपेक्षा रखते हैं, इसका एक रूप जैमिनीय ब्राह्मण २.२६ से स्पष्ट होता है जिसका विवेचन विषयान्तर और विस्तारभय से यहां नहीं किया जा रहा है ।

तैत्तिरीय ब्राह्मण १.५.१ में धनुष को शिशिर ऋतु से सम्बद्ध किया गया लगता है । कहा गया है कि आरुणकेतुक अग्नि के धनुष की एक कोटि द्युलोक में है जबकि दूसरी कोटि पृथिवी में । इन्द्र ने वम्रिरूप होकर इस धनुष की ज्या को छिन्न कर दिया ।

ऋग्वेद १०.१८.९ की ऋचा में मृतक के हाथ से धनुष ले लेने का उल्लेख है –

धनुर्हस्तादाददानो मृतस्याऽस्मे क्षत्राय वर्चसे बलाय ।

अत्रैव त्वमिह वयं सुवीरा विश्वाः स्पृधो अभिमातीर्जयेम ।।

इस ऋचा का निहितार्थ क्या है, यह अन्वेषणीय है । तैत्तिरीय आरण्यक ६.१.३ में इस ऋचा का थोडा और विस्तार मिलता है कि मृत ब्राह्मण के हाथ से सुवर्ण लेना है, क्षत्रिय के हाथ से धनु और वैश्य के हाथ से मणि ।

शतपथ ब्राह्मण ५.३.५.२७ में धनुष को यजमान की बाहुओं से निर्मित कहा गया है और इन बाहुओं में से एक मित्र की बाहु है, एक वरुण की । यजमान को तीन इषु दिए जाते हैं जिनमें प्रथम इषु का नाम दृबा, द्वितीय का रुजा और तृतीय का क्षुमा है । प्रथम इषु से पृथिवी की, द्वितीय से अन्तरिक्ष की और तृतीय से द्युलोक की जय की जाती है । कात्यायन श्रौत सूत्र के कर्क भाष्य में बाहु – द्वय को धनुष की दो कोटियां कहा गया है ।

मैत्रायणी संहिता ६.२८ में संन्यासी के धनुष का निर्माण दो प्रकार से किया गया है । ज्या क्रोध, प्रलोभ दण्ड तथा इच्छामय इषुओं से निर्मित एक धनुष द्वारा भूतों का हनन करने का निर्देश है । प्रव्रज्या ज्या, धृति दण्ड तथा अनभिमानमय इषु से निर्मित धनुष से ब्रह्मद्वारपार के हनन का निर्देश है ।

मन्यु और धनुष -

अथर्ववेद ६.४२.१ के मन्यु सूक्त का प्रथम मन्त्र है –

अव ज्यामिव धन्वनो मन्युं तनोमि ते हृदः ।

यथा संमनसो भूत्वा सखायाविव सचावहै ।।

अर्थात् मैं तेरे हृदय से मन्यु का अवतनन इस प्रकार करता हूं जैसे धनुष पर से ज्या का अवरोपण किया जाता है । ऐसा करने से हम दोनों एक मन हो सकेंगे और सखाओं की भांति व्यवहार कर सकेंगे । इस मन्त्र से संकेत मिलता है कि हृदय में स्थित प्राण उन प्राणों में से हैं जिन पर मन का आरोपण करके, उन्हें मन द्वारा सममिति प्रदान करके मन्यु बनाया जा सकता है । लेकिन इस मन्यु को भी हटाना है । अथर्ववेद ५.१८.८ का मन्त्र है –

जिह्वा ज्या भवति कुल्मलं वाङ्नाडीका दन्तास्तपसाभिदिग्धाः।

तेभिर्ब्रह्मा विध्यति देवपीयून् हृद्बलैर्धनुभिर्देवजूतैः।।

इस मन्त्र के स्वामी गंगेश्वरानन्द कृत भाष्य में कहा गया है कि ब्रह्मा देवपीयुओं अर्थात् देवों को हानि पहुंचाने वालों का वेधन इस प्रकार करता है कि हृद्बल उसके धनुष बन जाते हैं, जिह्वा ज्या बन जाती है, वाक् कुल्मल अर्थात् धनुर्दण्ड बन जाती है, दन्त नालीक नामक आयुध बन जाते हैं । इस मन्त्र से संकेत मिलता है कि जब हृदय धनुष हो तो जिह्वा उसकी ज्या हो सकती है । पैप्पलाद संहिता १.९२.४ में जिह्वाग्र पर स्थित किसी मन्यु का उल्लेख है –

जिह्वाया अग्रे यो वो मन्युस् तं वो वि नयामसि ।।

जिह्वाग्र पर रसों का आस्वादन करने वाले तन्तु विद्यमान होते हैं । शिश्नाग्र और जिह्वाग्र का परस्पर सम्बन्ध कहा जाता है । और तो और, जिस टेस्टोस्टेरोन का ऊपर उल्लेख किया गया है, चिकित्सा साहित्य में कहा गया है कि उसके कारण अतिरिक्त जिह्वाग्र तन्तुओं का विकास भी किया जा सकता है । इसका यह तात्पर्य भी हो सकता है कि जब किसी रुग्णता के कारण मुख का स्वाद खराब हो जाता है, उसमें भी यही हारमोन उत्तरदायी हो सकता है ।

धनुष और उसकी ज्या के इन उल्लेखों को तब समझा जा सकता है जब यह ज्ञान हो कि अध्यात्म में धनुष और उसकी ज्या से क्या तात्पर्य हो सकता है । जब कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होकर ऊर्ध्वमुखी हो जाती है, उस समय की कुण्डलिनी की अवस्था को ज्या और शरीर को धनुष का नाम दिया जा सकता है । ज्या को गुण भी कहते हैं । अतः जब धनुष ज्यारहित होता है तो उसका अर्थ होगा कि वह सत्, रज व तम नामक तीन गुणों से रहित अवस्था में है । महाभारत सौप्तिक पर्व १८.७ में यज्ञों को धनुष और वषट्कार को उसकी ज्या कहा गया है । वषट्कार को इस प्रकार समझ सकते हैं कि सोमयाग में सोम की आहुति प्रायः जोर से वौ३षट् का उच्चारण करने के पश्चात् दी जाती है, वैसे ही जैसे साधारण रूप से आहुति देते समय स्वाहा शब्द का उच्चारण किया जाता है । कहा गया है कि वौषट् के उच्चारण से आकाश में जो मेघ वर्षा के लिए तैयार रहते हैं, वह बरस पडते हैं । मेघों के संप्लावन, विद्युत का चमकना आदि कार्य अन्य शब्दों द्वारा सम्पन्न किए जाते हैं । वौषट् का उच्चारण पूरा जोर लगाकर किया जाता है । इसे एक अभिचार समझा जाता है जो शत्रुओं का नाश करता है । वौषट् की दूसरी निरुक्ति इस प्रकार की गई है कि सूर्य वौ है और छह ऋतुएं षट् हैं । इस प्रकार वौषट् का उच्चारण करके पृथिवी पर ऋतुओं में सूर्य की प्रतिष्ठा की जाती है । वौषट् को मन्यु की स्थिति ही माना जा सकता है । अन्तर इतना है कि मन्यु की स्थिति प्राण में मन की प्रतिष्ठा होनी चाहिए, लेकिन वौषट् में सूर्य रूपी प्राण की प्रतिष्ठा ऋतुओं में की जा रही है । वौषट् से हम यह भी अनुमान लगा सकते हैं कि मनुष्य में टेस्टोस्टेरोन की पराकाष्ठा क्या हो सकती है । 

धनुष और उसकी ज्या का एक स्वरूप नाग रूप में भी है । लेकिन मन्यु के इस रूप में विष विद्यमान रहेगा जिससे मुक्ति अपेक्षित है ।

अथर्ववेद ५.१३.६ का मन्त्र है –

असितस्य तैमातस्य बभ्रोरपोदकस्य च ।

सत्रासाहस्याहं मन्योरव ज्यामिव धन्वना वि मुञ्चामि रथाँ इव ।।

इस मन्त्र में कहा जा रहा है कि मैं असित आदि विभिन्न सर्पों के मन्युओं से तुझे वैसे ही मुक्त करता हूं जैसे धनुष से ज्या का मोचन किया जाता है अथवा जैसे रथों से अश्वों को अलग किया जाता है ।

अथर्ववेद ८.३.१२ तथा १०.५.४८ के मन्त्रों का दूसरा पद निम्नलिखित है –

मन्योर्मनसः शरव्या जायते या तया विध्य हृदये यातुधानान् ।।

अर्थात् मन्यु युक्त मन से जो शरव्या या शर उत्पन्न होता है, उससे यातुधानों के हृदय का वेधन करो । इस प्रकार मन्यु के इन मन्त्रों में किसी न किसी प्रकार से हृदय का उल्लेख आ रहा है । यह भी स्पष्ट हो रहा है कि जहां मन्यु विद्यमान होगा, वहां वह धनुष की ज्या की भांति काम करेगा । यदि देह में स्थित मन्यु की बात करें तो वह प्रत्येक तन्तु में तनाव उत्पन्न करके उसको धनुष का स्वरूप देगा । अतः यह अपेक्षित है कि जहां जहां भी दूषित मन्यु के कारण धनुष बना हुआ है, उसे दूर करके सत्य मन्यु की, स्तोत्र की प्रतिष्ठा की जाए ।

संदर्भ-*पित्र्यमंशमुपवीतलक्षणं मातृकं च धनुरूर्जितं दधत् – रघुवंश ११.६४, कु. ६.६, शि.१.७, मनु. २.४४, २.६४, ४.३६